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स्वामी रामतीर्थ संस्कृत अकादमी संस्कृत भाषा और उसके विशाल साहित्य का संस्कृत प्रेमियों के बीच आधुनिक तकनीक और प्रचार माध्यमों से प्रचार–प्रसार करने के साथ-साथ उस पीढ़ी को भी संस्कृत भाषा की ओर आकर्षित करने के लिए कार्य कर रही है, जो अभी विद्यालय स्तर पर अध्ययनरत है अथवा संस्कृत भाषा के सौन्दर्, महत्व एवं उपयोगिता से परिचित नहीं है. समाज में भी एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो संस्कृत की प्रासंगिकता एवं समृद्ध भविष्य के लिए उसकी की अपरिहार्यता को समझ नहीं पा रहा है. संस्कृत तक लोगों की व्यापक पहुँच सुनिश्चित करने के लिए दो स्तरों पर कार्य करना आवश्यक है. प्रथम यह कि समाज के सभी वर्गों तक यह तथ्य पहुँचाया जाना कि संस्कृत भाषा सभी के लिए सामान रूप से उपलब्ध, ग्राह्य और बोध्य है. किसी वर्ग, जाति या उम्र विशेष के लोगों के लिए इसके पठन-पाठन में विशेषाधिकार नहीं है. द्विटीय यह कि संस्कृत में ही वह विशेष क्षमता मौजूद है कि यह सम्पूर्ण मानवता के लिए वह शारीरिक, मानसिक एवं अध्यात्मिक पोषण उपलब्ध करा सकती है, जो सभी के लिए इस लोक और परलोक दोनों में समान रूप से अपेक्षित है. संयोगवश आर्यावर्त की पुण्यधरा भी इसके सहज उपलब्ध ज्ञानरूपी अमृत के महत्व एवं उपयोगिता को विस्मृत कर प्रतिवेशी सभ्यताओं द्वारा परोसे जा रहे मद्यपान (दूषित विचारदृष्टि से उत्पन्न जीवन शैली) की ओर ती जा रही है.
ऐसे में अमृतपुत्रों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे न केवल स्वयं को विचार और आचरण की पवित्रता से ओतप्रोत रखें, अपितु मदपान में डूबी हुई शेष मानव जाति (चाहे वह आर्यावर्त की धारा पर ही अपनी संस्कृति से भटके हुए लोग हो अथवा विश्व में वर्तमान कोई समाज) को उस अमर्यादित जीवन शैली से बाहर लाकर सुसंस्कृत जीवन की ओर ले जाने का भागीरथ उद्योग करें. विश्व इतिहास में ऐसे अमृतपुत्रों को आज भी याद किया जाता है जिनके प्रयासों से मानवता को इस मनुष्य रूप में जन्म की सार्थकता और पृथिवी पर ही स्वर्ग की अनुभूति करने की दृष्टि देने का सफल प्रयास किया है, इसी का परिणाम है कि आज भी वेदों और उपनिषदों के शिक्षायें कहीं न कहीं लोगों को जीवन की पवित्रता और उसमे निहित सौन्दर्य की अनुभूति कराती रहती हैं.
आवश्यकता इस बात की है हम जोकि उत्कृष्ट संस्कृति और पवित्र ज्ञान के स्वाभाविक वाहक और उत्तराधिकारी है, न केवल अपने को इसके योग्य बनाएं बल्कि उत्तराधिकार में जो जिम्मेदारियां मिली है, उनके प्रति भी जागरूक हों. ऐसा करने पर ही हम अपने अस्तित्व को बचाने में सक्षम रह पाएंगे और शेष विश्व को (जो भारतीय ज्ञान-विज्ञान के प्रति भारतीयों की अपेक्षा तेजी से आकर्षित हो रहा है) भी वह ज्ञानदृष्टि दे पायेंगे जो ‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की अमृतवाणी का प्रवाह करने वाली होगी.
स्वामी रामतीर्थ संस्कृत अकादमी इसी परम्परा को आगे बढाने के लिए कृतसंकल्प है. संस्कृत और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के इस समवेत प्रयास में आपका भी स्वागत है. आइये, हम सब मिलकर आर्यावर्त की पुण्यधरा से वही पियूषवर्षी शंखनाद करें, जो सम्पूर्ण विश्व को अमृतमय कर दे...पृथिवी को स्वर्गतुल्य बना दे...... - सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् । देवा भागं यथापूर्वे सञ्जानाना उपासते ॥